संदेश

मार्च, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आँख का आँसू

आँख का आँसू ढलकता देखकर जी तड़प कर के हमारा रह गया क्या गया मोती किसी का है बिखर या हुआ पैदा रतन कोई नया ? ओस की बूँदें कमल से हैं कहीं या उगलती बूँद हैं दो मछलियाँ या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी खेलती हैं खंजनों की लड़कियाँ । या जिगर पर जो फफोला था पड़ा फूट कर के वह अचानक बह गया हाय था अरमान, जो इतना बड़ा आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया । पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ यों किसी का है निराला पन भया दर्द से मेरे कलेजे का लहू देखता हूँ आज पानी बन गया । प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी वह नहीं इस को सका कोई पिला प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला । ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो वह समझते हैं सफर करना इसे आँख के आँसू निकल करके कहो चाहते हो प्यार जतलाना किसे ? आँख के आँसू समझ लो बात यह आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े । हो गया कैसा निराला यह सितम भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया यों किसी का है नहीं खोते भरम आँसुओ, तुमने कहो यह क्या किया ? -अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

मनुष्यता

विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸ नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए। यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸ उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती। उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती; तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।। सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही; वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही। विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸ विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे? अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸ वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸ समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े। परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸ अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी। रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। "मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸ पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है। फलानुसार
सुना करो मेरी जान इन से उन से अफ़साने [अफ़साने(fiction) = कल्पित कथा] सब अजनबी है यहाँ कौन किसको पहचाने यहाँ से जल्दी गुज़र जाओ काफिले वालों [क़ाफ़िले (caravan )] है मेरी प्यास के फूके हुये ये वीराने मेरी जूनून-ए-परस्तिश से तंग आ गए लोग [जूनून( frenzy) = सनक] [परस्तिश(worship) = पूजा] सूना है बंद किये जा रहे है बुत-खाने [ बुत - खाने (idol temple) = मंदिर] जहाँ से पिछले पहर कोई तशना -काम उठा [तशना-काम( thirsty) = प्यासा] वहीं पर तोड़े है यारों ने आज पैमाने बहार आये तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने [तलब(called for)] [सेहरा(desert)= मरुस्थल] हुआ है हुक्म के कैफी को संग-सार करो [संग-सार(stoning)= पत्थरो से मारना] मशिह बैठे हैं छुप के कहॉ खूदा जाने [मशिह( messiah)= मसीहा] - कैफ़ी आज़मी

कौन तुम मेरे हृदय में ?

कौन तुम मेरे हृदय में ? कौन मेरी कसक में नित मधुरता भरता अलक्षित ? कौन प्यासे लोचनों में घुमड़ घिर झरता अपरिचित ? स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा नींद के सूने निलय में ! कौन तुम मेरे हृदय में ? अनुसरण निश्वास मेरे कर रहे किसका निरन्तर ? चूमने पदचिन्ह किसके लौटते यह श्वास फिर फिर कौन बन्दी कर मुझे अब बँध गया अपनी विजय में ? कौन तुम मेरे हृदय में ? एक करूण अभाव में चिर- तृप्ति का संसार संचित एक लघु क्षण दे रहा निर्वाण के वरदान शत शत, पा लिया मैंने किसे इस वेदना के मधुर क्रय में ? कौन तुम मेरे हृदय में ? गूँजता उर में न जाने दूर के संगीत सा क्या ? आज खो निज को मुझे खोया मिला, विपरीत सा क्या क्या नहा आई विरह-निशि मिलन-मधु-दिन के उदय में ? कौन तुम मेरे हृदय में ? तिमिर-पारावार में आलोक-प्रतिमा है अकम्पित आज ज्वाला से बरसता क्यों मधुर घनसार सुरभित ? सुन रहीं हूँ एक ही झंकार जीवन में, प्रलय में ? कौन तुम मेरे हृदय में ? मूक सुख दुख कर रहे मेरा नया श्रृंगार सा क्या ? झूम गर्वित स्वर्ग देता - नत धरा को प्यार सा क्या ? आज पुलकित सृष्टि क्या करने चली अभिसार लय में कौन तुम मेरे हृदय में ? - महादेवी वर्

प्राप्ति

तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका, हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका । मुझे भर लिया तुमने गोद में, कितने चुम्बन दिये, मेरे मानव-मनोविनोद में नैसर्गिकता लिये; सूखे श्रम-सीकर वे छबि के निर्झर झरे नयनों से, शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले, मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा जब थका, रुका । - सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला "

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर, तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? ‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’ और न कुछ मैं कहने पाया - मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? वह क्षण अमर हुआ जीवन में, आज राग जो उठता मन में - यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? - हरिवंश राय बच्चन
हम उन्हे वो हमें भुला बैठे दो गुनेह-गार ज़हर खा बैठे हाल-ए-दिल कह के गम बढ़ा बैठे तीर मारे थे तीर खा बैठे आँधियो जाओ अब करो आराम हम खुद अपना दीया बुझा बैठे जी तो हल्का हुआ मगर यारों रो कर लुफ़्त-ए-गम गवाँ बैठे बे-सहारों का हौसला ही क्या घर मे घबराये, दर पे आ बैठे उठ के एक बे-वफ़ा ने दे दि जान रह गये सरे बा-वफ़ा बैठे जब से बिछड़े वो, मुस्कुराये ना हम सबने छेड़ा तो लब हिला बैठे हश्र का दिन अभी है दूर "खुमार" आप क्यूं ज़हिदों मे जा बैठे - खुमार बाराबंकवी

पशेमानी

मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको कदम ऐसे अंदाज से उठ रहे थे के वो आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको हवाओं मे लहराता आता था दामन के दामन पकड़ के बैठा लेगी मुझको मगर उस ने रोका, ना मुझको मनाया ना अवाज़ ही दी, ना वापस बुलाया ना दामन ही पकड़ा, ना मुझको बिठाया मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया यहाँ तक के उस से जुदा हो गया मैं - कैफ़ी आज़मी
दोनों ओर प्रेम पलता है सखि पतंग भी जलता है हा दीपक भी जलता है सीस हिलाकर दीपक कहता बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता पर पतंग पडकर ही रहता कितनी विह्वलता है दोनों ओर प्रेम पलता है बचकर हाय पतंग मरे क्या प्रणय छोडकर प्राण धरे क्या जले नही तो मरा करें क्या, क्या यह असफलता है दोनों ओर प्रेम पलता है कहता है पतंग मन मारे तुम महान मैं लघु पर प्यारे क्या न मरण भी हाथ हमारे, शरण किसे छलता है दोनों ओर प्रेम पलता है दीपक के जलनें में आली फिर भी है जीवन की लाली किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली, किसका वश चलता है दोनों ओर प्रेम पलता है जगती वणिग्वृत्ति है रखती उसे चाहती जिससे चखती काम नही परिणाम निरखती, मुझको ही खलता है दोनों ओर प्रेम पलता है -मैथिलीशरण गुप्त

आज शाम है बहुत उदास

भगवतीचरण वर्मा की यह कविता हृदय के भावों को बिना किसी प्रयास के , सहज ही शब्दो मे व्यक्त कर देती है । यह कविता मैं 'उसे' समर्पित करता हूँ , जिसने मुझे जीने का एक बिल्कुल नयी राह दिखायी ! आज शाम है बहुत उदास केवल मैं हूँ अपने पास । दूर कहीं पर हास-विलास दूर कहीं उत्सव-उल्लास दूर छिटक कर कहीं खो गया मेरा चिर-संचित विश्वास । कुछ भूला सा और भ्रमा सा केवल मैं हूँ अपने पास एक धुंध में कुछ सहमी सी आज शाम है बहुत उदास । एकाकीपन का एकांत कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत । थकी-थकी सी मेरी साँसें पवन घुटन से भरा अशान्त, ऐसा लगता अवरोधों से यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त । अंधकार में खोया-खोया एकाकीपन का एकांत मेरे आगे जो कुछ भी वह कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत । उतर रहा तम का अम्बार मेरे मन में व्यथा अपार । आदि-अन्त की सीमाओं में काल अवधि का यह विस्तार क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर? एक प्रश्न मैं हूँ साकार । क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना? मेरे मन में व्यथा अपार औ समेटता निज में सब कुछ उतर रहा तम का अम्बार । सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास, आज शाम है बहुत उदास । जोकि आज था तोड़ रहा वह बुझी-बुझी सी अन्तिम सा

आह को चाहिये

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंज करूं खूने जिगर होने तक हमने माना कि तगाफुल ना करोगे लेकिन, ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक परतव-ए-खुर से है शबनम को फना की तालीम मैं भी हूँ एक इनायत कि नज़र होने तक गम-ए-हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग इलाज शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक - मिर्ज़ा गालिब