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बात की बात

इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैं जब हम अपने से ही अपनी- बीती कहने लग जाते हैं। तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता है कुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है। लगता; सुख-दुख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूँ यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ कवि की अपनी सीमायें है कहता जितना कह पाता है कितना भी कह डाले, लेकिन- अनकहा अधिक रह जाता है यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्यों उठती है? बसती बस्ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्या? ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्या? जीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्या कहना! दौड़-धूप के बीच एक- क्षण, थम जाए तो क्या कहना! कुछ खाली खाली होगा ही जिसमें निश्वास समाया था उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्वास चुराया था फिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगी साँचे के तीव्र-विवर्त्‍तन से मन की पूनी भरनी होगी जो भी अभाव भरना होगा चलते-चलते भर जाएगा पथ में गुनने बैठूँगा तो जीना दूभर हो जाएगा। - शिवमंगल सिंह ' सुमन '

गहन है यह अंधकारा

गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा। खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर, बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर इस गगन में नहीं दिनकर; नही शशधर, नही तारा। कल्पना का ही अपार समुद्र यह, गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह, कुछ नही आता समझ में कहाँ है श्यामल किनारा। प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की, याद जिससे रहे वंचित गेह की, खोजता फिरता न पाता हुआ, मेरा हृदय हारा। - सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला '

आह ! वेदना मिली विदाई

आह ! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई श्रमित स्वप्न की मधुमाया में गहन-विपिन की तरु छाया में पथिक उनींदी श्रुति में किसने यह विहाग की तान उठाई लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी रही बचाए फिरती कब की मेरी आशा आह ! बावली तूने खो दी सकल कमाई चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर प्रलय चल रहा अपने पथ पर मैंने निज दुर्बल पद-बल पर उससे हारी-होड़ लगाई लौटा लो यह अपनी थाती मेरी करुणा हा-हा खाती विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे इसने मन की लाज गँवाई - जयशंकर प्रसाद

एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ? देव मेरे भाग्य में क्या है बदा, मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ? या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी, चू पडूँगी या कमल के फूल में ? बह गयी उस काल एक ऐसी हवा वह समुन्दर ओर आई अनमनी एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला वह उसी में जा पड़ी मोती बनी । लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें बूँद लौं कुछ और ही देता है कर । - अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध '

क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं?

अगणित उन्मादों के क्षण हैं, अगणित अवसादों के क्षण हैं, रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! याद सुखों की आसूं लाती, दुख की, दिल भारी कर जाती, दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! दोनो करके पछताता हूं, सोच नहीं, पर मैं पाता हूं, सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! - हरिवंश राय बच्चन

ये ज़िंदगी

ये ज़िन्दगी आज जो तुम्हारे बदन की छोटी-बड़ी नसों में मचल रही है तुम्हारे पैरों से चल रही है तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है ये ज़िन्दगी जाने कितनी सदियों से यूँ ही शक्लें बदल रही है बदलती शक्लों बदलते जिस्मों में चलता-फिरता ये इक शरारा जो इस घड़ी नाम है तुम्हारा इसी से सारी चहल-पहल है इसी से रोशन है हर नज़ारा सितारे तोड़ो या घर बसाओ क़लम उठाओ या सर झुकाओ तुम्हारी आँखों की रोशनी तक है खेल सारा ये खेल होगा नहीं दुबारा ये खेल होगा नहीं दुबारा - निदा फ़ाज़ली

मोम सा तन घुल चुका

मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है। विरह के रंगीन क्षण ले, अश्रु के कुछ शेष कण ले, वरुनियों में उलझ बिखरे स्वप्न के सूखे सुमन ले, खोजने फिर शिथिल पग, निश्वास-दूत निकल चुका है! चल पलक है निर्निमेषी, कल्प पल सब तिविरवेषी, आज स्पंदन भी हुई उर के लिये अज्ञातदेशी चेतना का स्वर्ण, जलती वेदना में गल चुका है! झर चुके तारक-कुसुम जब, रश्मियों के रजत-पल्लव, सन्धि में आलोक-तम की क्या नहीं नभ जानता तब, पार से, अज्ञात वासन्ती, दिवस-रथ चल चुका है। खोल कर जो दीप के दृग, कह गया 'तम में बढा पग' देख श्रम-धूमिल उसे करते निशा की सांस जगमग, न आ कहता वही, 'सो, याम अंतिम ढल चुका है'! अन्तहीन विभावरी है, पास अंगारक-तरी है, तिमिर की तटिनी क्षितिज की कूलरेख डुबा भरी है! शिथिल कर के सुभग सुधि- पतवार आज बिछल चुका है! अब कहो सन्देश है क्या? और ज्वाल विशेष है क्या? अग्नि-पथ के पार चन्दन-चांदनी का देश है क्या? एक इंगित के लिये शत बार प्राण मचल चुका है! - महादेवी वर्मा

दायरा

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ रोज़ बसते हैं कई शहर नये रोज़ धरती में समा जाते हैं ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत न कहीं धूप न साया न सराब कितने अरमाँ है किस सहरा में कौन रखता है मज़ारों का हिसाब नफ़्ज़ बुझती भी भड़कती भी है दिल का मामूल है घबराना भी रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा इक आदत है जिये जाना भी क़ौस एक रंग की होती है तुलू'अ एक ही चाल भी पैमाना भी गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद मुश्किल क्या हो गई मयख़ाने की कोई कहता था समंदर हूँ मैं और मेरी जेब में क़तरा भी नहीं ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ कभी क़ुरान कभी गीता की तरह चंद रेखाओं में समाऊँ मैं ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह राम कब लौटेंगे मालूम नहीं काश रावन ही कोई आ जाता - कैफ़ी आज़मी

चाँदनी छत पे चल रही होगी

चाँदनी छत पे चल रही होगी अब अकेली टहल रही होगी फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा वो बर्फ़-सी पिघल रही होगी कल का सपना बहुत सुहाना था ये उदासी न कल रही होगी सोचता हूँ कि बंद कमरे में एक शमा-सी जल रही होगी तेरे गहनों सी खनखनाती थी बाजरे की फ़सल रही होगी जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी - दुष्यंत कुमार

रात यों कहने लगा

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का आज उठता और कल फिर फूट जाता है किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो? बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है। मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली, देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू? स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी? आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ, और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की, इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ। मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी कल्पना की जीभ में भी धार होती है, वाण ही होते विचारों के नहीं केवल, स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है। स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे- रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे, रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को, स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे। - रामधारी सिंह ' दिनकर &#

विवशता

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था । गति मिली, मैं चल पड़ा, पथ पर कहीं रुकना मना था राह अनदेखी, अजाना देश संगी अनसुना था । चाँद सूरज की तरह चलता, न जाना रात दिन है किस तरह हम-तुम गए मिल, आज भी कहना कठिन है । तन न आया माँगने अभिसार मन ही मन जुड़ गया था मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था ।। देख मेरे पंख चल, गतिमय लता भी लहलहाई पत्र आँचल में छिपाए मुख- कली भी मुस्कराई । एक क्षण को थम गए डैने, समझ विश्राम का पल पर प्रबल संघर्ष बनकर, आ गई आँधी सदल-बल । डाल झूमी, पर न टूटी, किंतु पंछी उड़ गया था मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था ।। - शिवमंगल सिंह सुमन

मिटने का अधिकार

वे मुस्काते फूल नहीं जिनको आता है मुर्झाना, वे तारों के दीप नहीं जिनको भाता है बुझ जाना वे सूने से नयन,नहीं जिनमें बनते आंसू मोती, वह प्राणों की सेज,नही जिसमें बेसुध पीड़ा, सोती वे नीलम के मेघ नहीं जिनको है घुल जाने की चाह वह अनन्त रितुराज,नहीं जिसने देखी जाने की राह ऎसा तेरा लोक, वेदना नहीं,नहीं जिसमें अवसाद, जलना जाना नहीं नहीं जिसने जाना मिटने का स्वाद क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी करुणा का उपहार रहने दो हे देव अरे यह मेरे मिटने क अधिकार - महादेवी वर्मा

आ: धरती कितना देती है

इस कविता मे मेरे बचपन कि कुछ यादें छिपी हुयी हैं । मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे , रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी , और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा ! पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा , बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला । सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये । मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक , बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर । मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे , ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था । अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे । कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन । औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे । भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों । मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन । किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा , उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से । देखा आँग

साथी, सब कुछ सहना होगा!

मानव पर जगती का शासन, जगती पर संसृति का बंधन, संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधो में रहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा! हम क्या हैं जगती के सर में! जगती क्या, संसृति सागर में! कि प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा! आ‌ओ, अपनी लघुता जानें, अपनी निर्बलता पहचानें, जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा! - हरिवंशराय बच्चन

क्योंकि सपना है अभी भी

...क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ...क्योंकि सपना है अभी भी! तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था (एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?) किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना है धधकती आग में तपना अभी भी ....क्योंकि सपना है अभी भी! तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर वह तुम्ही हो जो टूटती तलवार की झंकार में या भीड़ की जयकार में या मौत के सुनसान हाहाकार में फिर गूंज जाती हो और मुझको ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको फिर तड़प कर याद आता है कि सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं तुम्हारा अपना अभी भी इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ... क्योंकि सपना है अभी भी! - धर्मवीर भारती

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊँ, चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ। मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पर जावें वीर अनेक । -माखनलाल चतुर्वेदी
मरा हूँ हजार मरण पाई तब चरण-शरण। फैला जो तिमिर जाल कट-कटकर रहा काल, आँसुओं के अंशुमाल, पड़े अमित सिताभरण। जल-कलकल-नाद बढ़ा अन्तर्हित हर्ष कढ़ा, विश्व उसी को उमड़ा, हुए चारु-करण सरण। - सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला '

मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥ चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥ रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥ मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥ दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥ वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥ लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥ दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी। मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥ मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥ सब गलियाँ उसकी भी देखी

लहर

वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ? जब सावन घन सघन बरसते इन आँखों की छाया भर थे सुरधनु रंजित नवजलधर से- भरे क्षितिज व्यापी अंबर से मिले चूमते जब सरिता के हरित कूल युग मधुर अधर थे प्राण पपीहे के स्वर वाली बरस रही थी जब हरियाली रस जलकन मालती मुकुल से जो मदमाते गंध विधुर थे चित्र खींचती थी जब चपला नील मेघ पट पर वह विरला मेरी जीवन स्मृति के जिसमें खिल उठते वे रूप मधुर थे - जयशंकर प्रसाद

दो-पहर

ये जीत-हार तो इस दौर का मुक्द्दर है ये दौर जो के पुराना नही नया भी नहीं ये दौर जो सज़ा भी नही जज़ा भी नहीं ये दौर जिसका बा-जहिर कोइ खुदा भी नहीं [जज़ा = rewards ],[बा-जहिर = evidently ] तुम्हारी जीत अहम है ना मेरी हार अहम के इब्तिदा भी नहीं है ये इन्तेहा भी नहीं शुरु मारका-ए-जान अभी हुआ भी नहीं शुरु तो ये हंगाम-ए-फ़ैसला भी नहीं [इब्तिदा = beginning] ,[इन्तेहा = end],[मारका-ए-जान = battle for life ] [हंगाम-ए-फ़ैसला = commotion before the verdict] पयाम ज़ेर-ए-लब अब तक है सूर-ए-इसराफ़ील सुना किसी ने किसी ने अभी सुना भी नहीं किया किसी ने किसी ने यकीं किया भी नहीं उठा जमीं से कोई, कोई उठा भी नहीं [पयाम = message], [ज़ेर-ए-लब = on the lips] [सूर-ए-इसराफ़ील=according to the islamic theology,Israafil is one of the angels who would call the dead to life on the day of judgement by sounding a loud alarm. It is believed that everyone would get up from their graves and elsewhere after hearing this alarm. ] कदम कदम पर दिया है रहज़नों ने फ़रेब के अब निगाह मे तौकीर-ए-रहनुमा भी नहीं उसे समझते है मंजिल जो रास्ता भ

यह कदम्ब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे। मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।। ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली। किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।। तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता। उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।। वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता। अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।। तुम को आता देख , बाँसुरी रख,मैं चुप हो जाता । वहीं-कहीं पत्तों में छोपकर फिर बाँसुरी बजाता ।। बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता। माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।। तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे। ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।। तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता। और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।। तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती। जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।। इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे। यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।। - सुभद्राकुमारी चौहान aflatoon[alias on blogger] जी का बहुत बहुत धन्यवाद इस कृती को पूरा करने के लिए ।

आँख का आँसू

आँख का आँसू ढलकता देखकर जी तड़प कर के हमारा रह गया क्या गया मोती किसी का है बिखर या हुआ पैदा रतन कोई नया ? ओस की बूँदें कमल से हैं कहीं या उगलती बूँद हैं दो मछलियाँ या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी खेलती हैं खंजनों की लड़कियाँ । या जिगर पर जो फफोला था पड़ा फूट कर के वह अचानक बह गया हाय था अरमान, जो इतना बड़ा आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया । पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ यों किसी का है निराला पन भया दर्द से मेरे कलेजे का लहू देखता हूँ आज पानी बन गया । प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी वह नहीं इस को सका कोई पिला प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला । ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो वह समझते हैं सफर करना इसे आँख के आँसू निकल करके कहो चाहते हो प्यार जतलाना किसे ? आँख के आँसू समझ लो बात यह आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े । हो गया कैसा निराला यह सितम भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया यों किसी का है नहीं खोते भरम आँसुओ, तुमने कहो यह क्या किया ? -अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

मनुष्यता

विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸ नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए। यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸ उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती। उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती; तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।। सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही; वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही। विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸ विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे? अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸ वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸ समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े। परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸ अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी। रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। "मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸ पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है। फलानुसार
सुना करो मेरी जान इन से उन से अफ़साने [अफ़साने(fiction) = कल्पित कथा] सब अजनबी है यहाँ कौन किसको पहचाने यहाँ से जल्दी गुज़र जाओ काफिले वालों [क़ाफ़िले (caravan )] है मेरी प्यास के फूके हुये ये वीराने मेरी जूनून-ए-परस्तिश से तंग आ गए लोग [जूनून( frenzy) = सनक] [परस्तिश(worship) = पूजा] सूना है बंद किये जा रहे है बुत-खाने [ बुत - खाने (idol temple) = मंदिर] जहाँ से पिछले पहर कोई तशना -काम उठा [तशना-काम( thirsty) = प्यासा] वहीं पर तोड़े है यारों ने आज पैमाने बहार आये तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने [तलब(called for)] [सेहरा(desert)= मरुस्थल] हुआ है हुक्म के कैफी को संग-सार करो [संग-सार(stoning)= पत्थरो से मारना] मशिह बैठे हैं छुप के कहॉ खूदा जाने [मशिह( messiah)= मसीहा] - कैफ़ी आज़मी

कौन तुम मेरे हृदय में ?

कौन तुम मेरे हृदय में ? कौन मेरी कसक में नित मधुरता भरता अलक्षित ? कौन प्यासे लोचनों में घुमड़ घिर झरता अपरिचित ? स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा नींद के सूने निलय में ! कौन तुम मेरे हृदय में ? अनुसरण निश्वास मेरे कर रहे किसका निरन्तर ? चूमने पदचिन्ह किसके लौटते यह श्वास फिर फिर कौन बन्दी कर मुझे अब बँध गया अपनी विजय में ? कौन तुम मेरे हृदय में ? एक करूण अभाव में चिर- तृप्ति का संसार संचित एक लघु क्षण दे रहा निर्वाण के वरदान शत शत, पा लिया मैंने किसे इस वेदना के मधुर क्रय में ? कौन तुम मेरे हृदय में ? गूँजता उर में न जाने दूर के संगीत सा क्या ? आज खो निज को मुझे खोया मिला, विपरीत सा क्या क्या नहा आई विरह-निशि मिलन-मधु-दिन के उदय में ? कौन तुम मेरे हृदय में ? तिमिर-पारावार में आलोक-प्रतिमा है अकम्पित आज ज्वाला से बरसता क्यों मधुर घनसार सुरभित ? सुन रहीं हूँ एक ही झंकार जीवन में, प्रलय में ? कौन तुम मेरे हृदय में ? मूक सुख दुख कर रहे मेरा नया श्रृंगार सा क्या ? झूम गर्वित स्वर्ग देता - नत धरा को प्यार सा क्या ? आज पुलकित सृष्टि क्या करने चली अभिसार लय में कौन तुम मेरे हृदय में ? - महादेवी वर्

प्राप्ति

तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका, हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका । मुझे भर लिया तुमने गोद में, कितने चुम्बन दिये, मेरे मानव-मनोविनोद में नैसर्गिकता लिये; सूखे श्रम-सीकर वे छबि के निर्झर झरे नयनों से, शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले, मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा जब थका, रुका । - सूर्यकांत त्रिपाठी " निराला "

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर, तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? ‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’ और न कुछ मैं कहने पाया - मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? वह क्षण अमर हुआ जीवन में, आज राग जो उठता मन में - यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? - हरिवंश राय बच्चन
हम उन्हे वो हमें भुला बैठे दो गुनेह-गार ज़हर खा बैठे हाल-ए-दिल कह के गम बढ़ा बैठे तीर मारे थे तीर खा बैठे आँधियो जाओ अब करो आराम हम खुद अपना दीया बुझा बैठे जी तो हल्का हुआ मगर यारों रो कर लुफ़्त-ए-गम गवाँ बैठे बे-सहारों का हौसला ही क्या घर मे घबराये, दर पे आ बैठे उठ के एक बे-वफ़ा ने दे दि जान रह गये सरे बा-वफ़ा बैठे जब से बिछड़े वो, मुस्कुराये ना हम सबने छेड़ा तो लब हिला बैठे हश्र का दिन अभी है दूर "खुमार" आप क्यूं ज़हिदों मे जा बैठे - खुमार बाराबंकवी

पशेमानी

मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको कदम ऐसे अंदाज से उठ रहे थे के वो आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको हवाओं मे लहराता आता था दामन के दामन पकड़ के बैठा लेगी मुझको मगर उस ने रोका, ना मुझको मनाया ना अवाज़ ही दी, ना वापस बुलाया ना दामन ही पकड़ा, ना मुझको बिठाया मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया यहाँ तक के उस से जुदा हो गया मैं - कैफ़ी आज़मी
दोनों ओर प्रेम पलता है सखि पतंग भी जलता है हा दीपक भी जलता है सीस हिलाकर दीपक कहता बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता पर पतंग पडकर ही रहता कितनी विह्वलता है दोनों ओर प्रेम पलता है बचकर हाय पतंग मरे क्या प्रणय छोडकर प्राण धरे क्या जले नही तो मरा करें क्या, क्या यह असफलता है दोनों ओर प्रेम पलता है कहता है पतंग मन मारे तुम महान मैं लघु पर प्यारे क्या न मरण भी हाथ हमारे, शरण किसे छलता है दोनों ओर प्रेम पलता है दीपक के जलनें में आली फिर भी है जीवन की लाली किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली, किसका वश चलता है दोनों ओर प्रेम पलता है जगती वणिग्वृत्ति है रखती उसे चाहती जिससे चखती काम नही परिणाम निरखती, मुझको ही खलता है दोनों ओर प्रेम पलता है -मैथिलीशरण गुप्त

आज शाम है बहुत उदास

भगवतीचरण वर्मा की यह कविता हृदय के भावों को बिना किसी प्रयास के , सहज ही शब्दो मे व्यक्त कर देती है । यह कविता मैं 'उसे' समर्पित करता हूँ , जिसने मुझे जीने का एक बिल्कुल नयी राह दिखायी ! आज शाम है बहुत उदास केवल मैं हूँ अपने पास । दूर कहीं पर हास-विलास दूर कहीं उत्सव-उल्लास दूर छिटक कर कहीं खो गया मेरा चिर-संचित विश्वास । कुछ भूला सा और भ्रमा सा केवल मैं हूँ अपने पास एक धुंध में कुछ सहमी सी आज शाम है बहुत उदास । एकाकीपन का एकांत कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत । थकी-थकी सी मेरी साँसें पवन घुटन से भरा अशान्त, ऐसा लगता अवरोधों से यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त । अंधकार में खोया-खोया एकाकीपन का एकांत मेरे आगे जो कुछ भी वह कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत । उतर रहा तम का अम्बार मेरे मन में व्यथा अपार । आदि-अन्त की सीमाओं में काल अवधि का यह विस्तार क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर? एक प्रश्न मैं हूँ साकार । क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना? मेरे मन में व्यथा अपार औ समेटता निज में सब कुछ उतर रहा तम का अम्बार । सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास, आज शाम है बहुत उदास । जोकि आज था तोड़ रहा वह बुझी-बुझी सी अन्तिम सा

आह को चाहिये

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंज करूं खूने जिगर होने तक हमने माना कि तगाफुल ना करोगे लेकिन, ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक परतव-ए-खुर से है शबनम को फना की तालीम मैं भी हूँ एक इनायत कि नज़र होने तक गम-ए-हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग इलाज शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक - मिर्ज़ा गालिब

अंधेरे का दीपक

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो
तुम्हारी कब्र पर मैं फ़ातेहा पढ़ने नही आया, मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था, वो तुम कब थे? कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था । मेरी आँखे तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ वो, वही है जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी । कहीं कुछ भी नहीं बदला, तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं, मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं, तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं | बदन में मेरे जितना भी लहू है, वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है, मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है, मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम | तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है, वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है, तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो, कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना | -निदा फ़ालजी " नीरज रोहिला " जी का बहुत बहुत धन्यवाद इस कृति को पूरा करने के लिये ।

पुनः नया निर्माण करो

उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो । जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो । नया प्रात है, नई बात है, नई किरण है, ज्योति नई । नई उमंगें, नई तरंगे, नई आस है, साँस नई । युग-युग के मुरझे सुमनों में, नई-नई मुसकान भरो । डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ नए स्वरों में गाते हैं । गुन-गुन, गुन-गुन करते भौंरे मस्त हुए मँडराते हैं । नवयुग की नूतन वीणा में नया राग, नवगान भरो । कली-कली खिल रही इधर वह फूल-फूल मुस्काया है । धरती माँ की आज हो रही नई सुनहरी काया है । नूतन मंगलमयी ध्वनियों से गुँजित जग-उद्यान करो । सरस्वती का पावन मंदिर यह संपत्ति तुम्हारी है । तुम में से हर बालक इसका रक्षक और पुजारी है । शत-शत दीपक जला ज्ञान के नवयुग का आव्हान करो । उठो धरा के अमर सपूतो, पुनः नया निर्माण करो । -द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
चाँद मद्धम है, आसमाँ चुप है नीद की गोद मे जहाँ चुप है दूर वादी में दुधीया बादल झुक के परबत को प्यार करते हैं दिल मे नाकाम हसरते लेकर हम तेरा इन्तेजार करते हैं इन बहारो के साये मे आ जा फिर मोहब्बत जवां रहे ना रहे ज़िन्दगी तेरे ना-मूरादों पर कल तक मेहरबान रहे ना रहे रोज की तरह आज भी तारे सुबह की गर्द मे ना खो जायें आ! तेरे गम मे जागती आँखे कम से कम एक रात सो जाये चाँद मद्धम है, आसमाँ चुप है नीद की गोद मे जहाँ चुप है -साहिर लुधिआनवी
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ। क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं? बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने। रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी। तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी। मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे अधजगा सा और अधसोया हुआ सा। रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में। इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू बह रहे थे इस नयन से उस नयन में। मैं लगा दूँ आग इस संसार में है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर। जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने के लिए था कर दिया तैयार तुमने! रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। प्रात ही की ओर को है रात चलती औ उजाले में अंधेरा डूब जाता। मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी खूबियों के साथ परदे को उठाता। एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था और मैंने था उतारा एक चेहरा। वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने। रात आधी खीं

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा ? क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुये विनीत जितना ही दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो । तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे । उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से । सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में चरण पूज दासता ग्रहण की बँधा मूढ़ बन्धन में। सच पूछो , तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की । सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है। - रामधारी सिंह दिनकर
मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ खनखनाता हूँ माँ के गहनों में हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में मैं ही मज़दूर के पसीने में मैं ही बरसात के महीने में मेरी तस्वीर आँख का आँसू मेरी तहरीर जिस्म का जादू मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में मुझको पहचानते नहीं जब लोग मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके आसमानों में लौट जाता हूँ मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ -निदा फ़ाज़ली
दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है आखिर इस दर्द कि दवा क्या है हम है मुश्ताक और वो बेज़ार [मुश्ताक( interested) = दिलचस्पी लेने वाला] [बेज़ार( sick of) = उदास,बीमार] या ईलाही! ये माजरा क्या है हम भी मुहँ मे जबान रखते हैं काश पूछो कि मुद्दा क्या है जब की तुझ बिन नही कोई मौजूद फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है ये परी-चेहरा लोग कैसे है गमज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अदा क्या है -मिर्जा गालिब

प्रतीक्षा

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता ? मौन रात इस भाँति कि जैसे, को‌ई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सो‌ई खो‌ई-सी सपनों में तारों पर सिर धर और दिशा‌ओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता ? तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आनेवाले, पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले, साँसें घूम-घूम फिर - फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं, मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता ? उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले, अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपना होश सम्हाले, तारों की महफ़िल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से, मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता ? बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती रग-रग में चेतनता घुलकर, आँसु के कण-सी झर जाती, नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता, अपनी बाहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता ? -हरिवंश राय बच्चन

एक कहानी

प्रस्तुत कविता http://merekavimitra.blogspot.com से ली गयी है। इस कविता ने 'हिन्द-युग्म यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता' मे प्रथम स्थान प्राप्त किया। अधिक जानकारी के लिये यहाँ click करें । उसको देखा जब भी, जिस क्षण, कृश तन , विदग्ध सा अंतर्मन; ले तड़प-तड़पकर जीता है, अपमान - हलाहल पीता है। पूछा मैनें , रे चिर- बेकल, कृश यह काया,ये नैन सजल; तू किसपर क्रोधित है भाई, जो इतनी खामोशी पाई? तू कृषक, अन्न उपजाता है, फ़िर क्यों भूखा रह जाता है? इतना उत्ताप भला कोई , किस तरह सहन कर पाता है? लख तेरी हालत, रह न सका; कुछ कहना चाहा, कह न सका। पर साहस आज जुटा पाया, जिज्ञासावश होकर आया; दे मेरे प्रश्नों का उत्तर , तज लाज़-हया का तम दुस्तर। फ़िर उसने मुझे बताया था, किस तरह कहूँ, सुन पाया था? बोला- भाई , तुम जान रहे, दुखियारा मैं , पहचान रहे। मैं भी तो जीवन जीता था, सुख से कुछ जीवन बीता था; सब यहाँ चैन से रहते थे, सुख - दुःख बाँटकर सह्ते थे। पर समय कभी क्या एक रहा? दुःख - सुख में तो हर एक रहा। मानव बस एक निशाना है, दोनों का आना जाना है। निज गृह पर विपदा आई थी, अपने संगी भी लाई थी। वह रात पड़ी मुझप

कोशिश

यह कविता मेरे मन पसंदीदा कविताओं मे से एक है । लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है। मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है। आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है। मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में। मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो। जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम, संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम। कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। -हरिवंशराय बच्चन
हमारे शौक की ये इन्तेहा थी[शौक(desire)=अभिलाषा][इन्तेहा( apex)= पराकाष्ठा] कदम रखा के मंज़िल रास्ता थी बिछड़ के डार से बन बन फिरा वो[डार(abode)=डेरा][बन(forest)] हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी कभी जो ख्वाब था वो पा लिया है मगर जो खो गयी वो चीज़ क्या थी? मैं बचपन मे खिलौने तोड़ता था मेरे अन्ज़ाम की वो इब्तीदा थी[इब्तीदा( beginning)= प्रारंभ] मुहब्बत मर गयी, मुझको भी गम है मेरे अच्छे दिनो की आशना थी[आशना(friend)=मित्र] जिसे मैं छू लूं वो हो जाये सोना तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थी[बद्दुआ(curse)=शाप] मरीजे-ए-ख्वाब को तो अब शफ़ा है[मरीजे-ए-ख्वाब( victim of dreams )][शफ़ा( cure)= औषधि] मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी -जावेद अख्तर

कामायनी[चिंता:भाग २]

सुरा सुरभिमय बदन अरूण वे नयन भरे आलस अनुराग़, कल कपोल था जहाँ बिछलता कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि वे सब मुरझाये चले गये, आह जले अपनी ज्वाला से फिर वे जल में गले, गये।" "अरी उपेक्षा-भरी अमरते री अतृप्ति निबार्ध विलास द्विधा-रहित अपलक नयनों की भूख-भरी दर्शन की प्यास बिछुडे तेरे सब आलिंगन, पुलक-स्पर्श का पता नहीं, मधुमय चुंबन कातरतायें, आज न मुख को सता रहीं। रत्न-सौंध के वातायन, जिनमें आता मधु-मदिर समीर, टकराती होगी अब उनमें तिमिगिलों की भीड अधीर। देवकामिनी के नयनों से जहाँ नील नलिनों की सृष्टि होती थी, अब वहाँ हो रही प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि। वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि रचित मनोहर मालायें, बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें विलासिनी सुर-बालायें। देव-यजन के पशुयज्ञों की वह पूर्णाहुति की ज्वाला, जलनिधि में बन जलती कैसी आज लहरियों की माला।" "उनको देख कौन रोया यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय यह प्रालेय हलाहल नीर हाहाकार हुआ क्रंदनमय कठिन कुलिश होते थे चूर, हुए दिगंत बधिर, भीषण रव बार-बार होता था क्रूर। दिग्दाहों से धूम उठे, या जलचर उठे क्षितिज-
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है मगर उसने मुझे चाहा बहुत है खुदा इस शहर को महफ़ूज़ रखे ये बच्चो की तरह हँसता बहुत है मैं हर लम्हे मे सदियाँ देखता हूँ तुम्हारे साथ एक लम्हा बहुत है मेरा दिल बारिशों मे फूल जैसा ये बच्चा रात मे रोता बहुत है वो अब लाखों दिलो से खेलता है मुझे पहचान ले, इतना बहुत है -बशीर बद्र
त्रिलोचन शास्त्री जितने बड़े लेखक हैं, उससे श्रेष्ठ वक्ता हैं। हंस के समान दिन उड़ कर चला गया अभी उड़ कर चला गया पृथ्वी आकाश डूबे स्वर्ण की तरंगों में गूँजे स्वर ध्यान-हरण मन की उमंगों में बन्दी कर मन को वह खग चला गया अभी उड़ कर चला गया कोयल सी श्यामा सी रात निविड़ मौन पास आयी जैसे बँध कर बिखर रहा शिशिर-श्वास प्रिय संगी मन का वह खग चला गया अभी उड़ कर चला गया -त्रिलोचन शास्त्री

कामायनी[चिंता:भाग १]

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह | नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन | दूर दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदय समान. नीरवता सी शिला चरण से टकराता फिरता पवमान | तरूण तपस्वी-सा बैठा साधन करता सुर-स्मशान, नीचे प्रलय लहरों का होता था सकरूण अवसान। उसी तपस्वी-से लंबे थे देवदारू दो चार खड़े, हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर बनकर ठिठुरे रहे अड़े। अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार, स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का होता था जिनमें संचार। चिता-कातर वदन हो रहा पौरष जिसमें ओत-प्रोत, उधर उपेक्षामय यौवनव का बहता भीतर मधुमय स्रोत। बँधी महावट से नौका थी सूखे में अब पड़ी रही, उतर चला था वह जल प्लावन, और निकलने लगी मही। निकल रही थी मर्म वेदना करूणा विकल कहानी सी, वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी-सी। "ओ चिता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की व्याली, ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कंप-सी मतवाली। हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खलखेला हरी-भरी-सी दौड-धूप, ओ जल-माया क

हिंदी की दुर्दशा

बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा- बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा कहँ ‘ काका ' , जो ऐश कर रहे रजधानी में नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी कहँ ‘ काका ' कविराय, ध्येय को भेजो लानत अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत - काका हाथरसी

जिन्दगी

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है [बसर(spent)= बिताना] रात खैरात की सदके की सहर होती है [खैरात(charity) = उदारता, उपकार][सदका(alms) = दान, भिक्षा, दयादान][ सहर(dawn) = प्रभात, भोर] सांस भरने को तो जीना नही कहते या रब दिल ही दुखता है ना अब आस्तीन तर होती है [आस्तीन(sleeve) = कपड़े की बांह] जैसे जागी हुयी आँखो मे चुभे कांच के ख्वाब रात इस तरह दिवानो की बसर होती है गम ही दुश्मन है मेरा गम ही को दिल ढूड़ता है एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है एक मरकाज़ की तलाश एक भटकती खुशबू [मरकाज़(center) = केन्द्र] कभी मंज़िल कभी तम्हीद-ए-सफ़र होती है [तम्हीद{ prelude( आरम्भ करना) /preamble( भूमिका) } ] -मीना कुमारी(अभिनेत्री)
वो रुला कर हस ना पाया देर तक जब मैं रो कर मुस्कुराया देर तक भूलना चाहा अगर कभी उसको अगर और भी वो याद आये देर तक खुद-ब-खुद बे-साख्ता मैं हंस पडा [बे-साख्ता = स्वाभाविक, सहज] उसने इस दरजा रुलाया देर तक भूखे बच्चो की तसल्ली के लिये माँ ने पानी पकाया देर तक गुनगुनाता जा रहा था एक फ़कीर धूप रहती है ना साया देर तक कल अंधेरी रात मे मेरी तरह एक जुगनू जगमगाया देर तक -नवाज़ देवबन्दी
विदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़ अंधेरे में छूटते चुपचाप बूढ़े पेड़, ख़त्म होने को ना आएगी कभी क्या एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह ? एक दिन क्या मुझी को पी जाएगी यह सफर कि प्यास, अबुझ, अथाह ? क्या यही सब साथ मेरे जायेंगे ऊंघते कस्बे, पुराने पुल ? पांव में लिपटी हुई यह धनुष सी दुहरी नदी बींध देगी क्या मुझे बिलकुल ? -धर्मवीर भारती
सोचा नही अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नही मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नही देखा तुझे, सोचा तुझे, चाहा तुझे, पूजा तुझे मेरी खता मेरी वफ़ा तेरी खता कुछ भी नही जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर भेजा वही कागज़ उसे हमनें , लिखा कुछ भी नही इस शाम की दहलीज पर बैठे रहे वो देर तक आँखो से की बातें बहुत मुझ से कहा कुछ भी नही दो चार दिन की बात है दिल खाक मे सो जायेगा जब आग पर कागज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नही एहसास कि खुशबू कहां, आवाज़ के जुगनू कहाँ खामोश यादों के सिवा घर मे रहा कुछ भी नही -बशीर बद्र
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता ? मौन रात इस भाँति कि जैसे, को‌ई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सो‌ई खो‌ई-सी सपनों में तारों पर सिर धर और दिशा‌ओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता ? तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आनेवाले, पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले, साँसें घूम-घूम फिर - फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं, मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता ? उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले, अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपना होश सम्हाले, तारों की महफ़िल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से, मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता ? बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती रग-रग में चेतनता घुलकर, आँसु के कण-सी झर जाती, नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता, अपनी बाहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता ? -हरिवंश राय बच्चन

मुझे पुकार लो

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता, जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता, नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया, कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता, कहाँ मनुष्य है कि जो उमीद छोड़कर जिया, इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी, विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी, न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली, न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी, कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की, इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो! इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की, निदघ से उमीद की बसंत के बयार की, मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी, अंगार से लगा चुका उमीद मै तुषार की, कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो! इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो! -हरिवंश राय बच्चन

जो तुम आ जाते एक बार !

जो तुम आ जाते एक बार ! कितनी करुणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणो का तार तार, अनुराग भरा उनमाद राग जो तुम आ जाते एक बार ! -महादेवी वर्मा

पंथ होने दो अपरिचित

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला! और होंगे चरण हारे, अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे; दुखव्रती निर्माण-उन्मद यह अमरता नापते पद; बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला! दूसरी होगी कहानी शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी; आज जिसपर प्यार विस्मित, मैं लगाती चल रही नित, मोतियों की हाट औ, चिनगारियों का एक मेला! हास का मधु-दूत भेजो, रोष की भ्रूभंगिमा पतझार को चाहे सहेजो; ले मिलेगा उर अचंचल वेदना-जल स्वप्न-शतदल, जान लो, वह मिलन-एकाकी विरह में है दुकेला! - महादेवी वर्मा

आग की भीख

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा, कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा। कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है, मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है? दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे, बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे। प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ। चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ। बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है, कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है? मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा? यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा? आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा, भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा। तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ। ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ। आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है, बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है, अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है, है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है! निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है, निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है। पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ। जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ। मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है, अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं। भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं, सोती वसुन्धरा जब
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये, यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये, स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा, मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा ! शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती, प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है । अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को, कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले, अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले । यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है । अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले, मौन जलता दीप , धरती ने कभी क्या दान तोले? खो रहे उच्छ्‌वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं, साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं, पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है । अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ, तिमिर लहराता न
नज़्म उलझी हुई है सीने में मिसरे अटके हुए हैं होठों पर उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं कब से बैठा हूँ मैं जानम सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा बस तेरा नाम ही मुकम्मल है इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी -गुलज़ार

गुनाह

सब्र हर बार इख्तियार किया हम से होता नही, हज़ार किया आदतन तुमने कर लिये वादे आदतन हमने भी ऐतबार किया हमने अक्सर तुम्हारी राहों मे रुक के अपना ही इन्तज़ार किया फिर ना मांगेगे ज़िन्दगी अब ये गुनाह हमने एक बार किया -गुलज़ार

आनंद

मौत तू एक कविता है, मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको -गुलज़ार(आनंद फ़िल्म से)
वो जो आये हयात याद आयी भूली बिसरी सी बात याद आयी हाल-ए-दिल कह के जब लौटे उनसे कहने कि बात याद आयी आपने दिन बना दिया था जिसे ज़िन्दगी भर वो रात याद आयी तेरे दर से उठे हि थे कि हमें तंगी-ए-कायनात याद आयी - खुमार बाराबंकवी

अफ़साने

खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने मे एक पुराना खत खोला अनज़ाने मे जाना किसका जिक्र है अफ़साने मे दर्द जब मज़े लेता है जो दुहराने मे शाम के साये बालिस्तो से नापे हैं चाँद ने कितनी देर लगा दी आने मे रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे ज़रा सी धूप दे उन्हे मेरे पैमाने में दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है किसका आहट सुनता है वीराने मे । -गुलज़ार