संदेश

इतना सा ही है संसार

सबसे पहले मेरे घर का, अण्डे जैसा था आकार, तब मैं यही समझती थी बस, इतना सा ही है संसार । फिर मेरा घर बना घोसला, सूखे तिनको से तैयार, तब मैं यही समझती बस, इतना सा ही है संसार । फिर मैं निकल गयी साखों पर, हरी भरी थी जो सुकुमार, तब मैं यही समझती बस, इतना सा ही है संसार । आखिर जब में आसमान में, उड़ी दूर तक पंख पसार, तभी समझ में मेरी आया, बहुत बड़ा है यह संसार !  - अनजान

कहीं जाना नहीं है..

कहीं जाना नहीं है बस यूँ ही सड़कों पे घूमेंगे कहीं पर तोड़ेंगे सिगनल किसी की राह रोकेंगे कोई चिल्ला के गाली देगा कोई 'होर्न' बजायेगा! ज़रा एहसास तो होगा कि ज़िन्दा हैं हमारी कोई हस्ती है !! -- गुलज़ार

मतवाली ममता

मानव ममता है मतवाली । अपने ही कर में रखती है सब तालों की ताली । अपनी ही रंगत में रंगकर रखती है मुँह लाली । ऐसे ढंग कहा वह जैसे ढंगों में हैं ढाली । धीरे-धीरे उसने सब लोगों पर आँखें डाली । अपनी-सी सुन्दरता उसने कहीं न देखी-भाली । अपनी फुलवारी की करती है वह ही रखवाली । फूल बिखेरे देती है औरों पर उसकी गाली । भरी व्यंजनों से होती है उसकी परसी थाली । कैसी ही हो, किन्तु बहुत ही है वह भोली-भाली । -अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

ऐसा क्या इत्तेफाक

ये भी क्या मुमकिन है की तुमसे दाद होगी, फिर से तुम पूछोगी, फिर नामुराद होगी, माज़रा क्या है की आँखों में सहर होता ही नहीं, अभी कुछ वक़्त है शायद कुछ और बाद होगी... इतने खामोश हो, कोई फरमाइश इजाद होगी, मेरी ख़ामोशी पर शिकायत की तादाद होगी, और कह दोगे की इत्तेफाक से हम साथ में हैं, ऐसा क्या इत्तेफाक की हर पल में तेरी याद होगी... - अनुभव

आदमी बुलबुला है पानी का

आदमी बुलबुला है पानी का, और पानी की बहती सतह पर, टूटता भी है, और डूबता भी है, फिर उभरता है, फिर से बहता है, न समंदर निगल सका इसको, वक्त की मौज पर सदा बहता; आदमी बुलबुला है पानी का! -गुलज़ार

बात की बात

इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैं जब हम अपने से ही अपनी- बीती कहने लग जाते हैं। तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता है कुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है। लगता; सुख-दुख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूँ यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ कवि की अपनी सीमायें है कहता जितना कह पाता है कितना भी कह डाले, लेकिन- अनकहा अधिक रह जाता है यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्यों उठती है? बसती बस्ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्या? ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्या? जीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्या कहना! दौड़-धूप के बीच एक- क्षण, थम जाए तो क्या कहना! कुछ खाली खाली होगा ही जिसमें निश्वास समाया था उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्वास चुराया था फिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगी साँचे के तीव्र-विवर्त्‍तन से मन की पूनी भरनी होगी जो भी अभाव भरना होगा चलते-चलते भर जाएगा पथ में गुनने बैठूँगा तो जीना दूभर हो जाएगा। - शिवमंगल सिंह ' सुमन '

गहन है यह अंधकारा

गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा। खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर, बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर इस गगन में नहीं दिनकर; नही शशधर, नही तारा। कल्पना का ही अपार समुद्र यह, गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह, कुछ नही आता समझ में कहाँ है श्यामल किनारा। प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की, याद जिससे रहे वंचित गेह की, खोजता फिरता न पाता हुआ, मेरा हृदय हारा। - सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला '

आह ! वेदना मिली विदाई

आह ! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई श्रमित स्वप्न की मधुमाया में गहन-विपिन की तरु छाया में पथिक उनींदी श्रुति में किसने यह विहाग की तान उठाई लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी रही बचाए फिरती कब की मेरी आशा आह ! बावली तूने खो दी सकल कमाई चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर प्रलय चल रहा अपने पथ पर मैंने निज दुर्बल पद-बल पर उससे हारी-होड़ लगाई लौटा लो यह अपनी थाती मेरी करुणा हा-हा खाती विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे इसने मन की लाज गँवाई - जयशंकर प्रसाद

एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ? देव मेरे भाग्य में क्या है बदा, मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ? या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी, चू पडूँगी या कमल के फूल में ? बह गयी उस काल एक ऐसी हवा वह समुन्दर ओर आई अनमनी एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला वह उसी में जा पड़ी मोती बनी । लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें बूँद लौं कुछ और ही देता है कर । - अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध '

क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं?

अगणित उन्मादों के क्षण हैं, अगणित अवसादों के क्षण हैं, रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! याद सुखों की आसूं लाती, दुख की, दिल भारी कर जाती, दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! दोनो करके पछताता हूं, सोच नहीं, पर मैं पाता हूं, सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! - हरिवंश राय बच्चन